माँ ने सुनकर अनसुना कर दिया। क्या करे वो भी! बेचारी मुझे बार-बार समझाती और मुझे भी माँ की बात ठीक लगती। उस समय तो मैं डिसाइड कर लेती कि अब से धीरे-धीरे चला करूँगी ...लेकिन थोड़ी ही देर में भूल-भाल जाती। मेरे भीतर से बचपना जाता ही नहीं था ...और ये बूढ़ी दादी दिनभर किसी-न-किसी पर बड़बड़ाती ही रहतीं। अब गलती तो किसी की भी नहीं थी। मैं ठहरी अल्हड़, तो उछलती-फिरती रहती ...और दादी ठहरीं बूढ़ी, लाचार और खाली तो दिनभर आँगन में लेटी-बैठी यही देखती रहतीं कि कौन क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है, कहाँ से आ रहा है... बस! फिर क्या था, इसलिए पूरे दिन उनका यह प्रवचन भी चलता रहता ...कोई सुनता हो कि न सुनता हो।